असंगघोष के काव्य में मानवीय अस्मिता की चेतना
DOI:
https://doi.org/10.61778/ijmrast.v2i10.87Abstract
असंगघोष का जन्म मध्यप्रदेश के जावद नामक छोटे से कस्बे में 29 अक्टूबर 1962 ई0 को हुआ। असंगघोष 21वीं शताब्दी के विख्यात हिन्दी कवि है। विषमता और विद्रूपता के प्रति विद्रोह करते हुए सामाजिक समानता के पुरोधा, दलितों के शोषण का विरोध, प्रस्थापित व्यवस्था के विरूद्ध उठायी गई ईमानदार आवाज परिवर्तित समानांतर समाज व्यवस्था खड़ी करने की कोशिश, मानवाधिकार के प्रति सजगता जैसी बहुआयामी चेतना से अनुप्राणित असंग जी की कविताओं में नई शती को विद्रोह की ताकत देने वाला आस्थावान विमर्श प्रस्तुत हुआ है। स्वतंत्रता, समानता, भाईचारा भारतीय संविधान के प्रणीत मूल्य है जो असंगघोष की कविताओं में हमें देखने को मिलता है। स्वयं प्रशासनिक सेवा में रहने के कारण असंग की अनुभूति बढ़ी व्यापक है इसी अनुभूति के कारण ही इनकी कविताओं में व्यवस्था के प्रति अस्वीकृति की गूंज सुनायी देती है।
बीज शब्द- सामाजिक समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व, स्त्री गरिमा, जाति, वर्ग के आधार पर सामाजिक असमानता, विद्रोह, प्रतिरोध आक्रोश, सामाजिक उन्नति, समाज का विकास, शोषण अन्याय, अत्याचार, विद्रूपताएँ, विषमताएँ आदि।
Downloads
Published
Issue
Section
License
Copyright (c) 2024 International Journal of Multidisciplinary Research in Arts, Science and Technology

This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial 4.0 International License.