तुलसीदास के साहित्य में समन्वय की प्रासंगिकता

Authors

  • डॉ० होशियार सिंह सहायक प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, वल्लभ राजकीय महाविद्यालय, मंडी, हिमाचल प्रदेश-175001 Author

DOI:

https://doi.org/10.61778/ijmrast.v3i8.171

Keywords:

समन्वयवाद, तुलसीदास साहित्य, भक्ति आंदोलन, सांस्कृतिक एकता, धार्मिक सहिष्णुता

Abstract

तुलसीदास के साहित्य में समन्वय की प्रासंगिकता उनके समन्वयवादी दृष्टिकोण में निहित है, जिसने विभिन्न विचारधाराओं, भाषाओं और संस्कृतियों को एक साथ लाकर समाज को एकता का संदेश दिया। लोक और शास्त्र, निर्गुण और सगुण भक्ति, ज्ञान और भक्ति, अवधी और ब्रजभाषा, तथा हिन्दू और मुस्लिम संस्कृतियों के बीच समन्वय स्थापित करके उन्होंने एक विस्तृत और समावेशी दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। आज के भोगवाद, आतंकवाद और सामाजिक विघटन के युग में भी, तुलसीदास की समन्वयवादी विचारधारा मानव जाति को मानसिक और आत्मिक शांति प्रदान करने में सक्षम है, जिससे उनकी प्रासंगिकता बनी हुई | तुलसीदास वास्तविक तौर पर समन्वयवादी कवि और लेखक था उन्होंने राम को ईश्वर माना और उनकी आजीवन आराधना की । उनके धार्मिक गतिशीलता का कारण जीवन की वास्तविकता को समझना तथा अपने धर्म की रक्षा करने के लिए तत्पर रहना था। तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियां मुस्लिम आक्रमणकारियों से प्रभावित थी । यह जबरन अपना धर्म भारतीय जनमानस पर धोप रही थी जिसके कारण तुलसीदास की समन्वय की भावना का प्रखर रूप देखने को मिला। तुलसीदासजी का जन्म संवत 1589 को उत्तर प्रदेश के राजापुर नामक गावं में हुआ था। इनके पिता का नाम आत्माराम दुबे तथा माता का नाम हुलसी था। तुलसीदासजी का विवाह दीनबंधु पाठक की पुत्री रत्नावली से हुआ था। हिंदी साहित्य के स्वर्ण युग के महान भक्त, प्रबुद्ध कवि और दार्शनिक महाकवि तुलसीदास, जिन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से समन्वय स्थापित किया, समन्वय की साधना का उन्होंने निरन्तर आध्यात्मिक अभ्यास किया है जिसने आज तक भारतीय जनता को प्रभावित किया है। उनके विचार में, सांप्रदायिक या भाषाई विवाद तुच्छ या पाखंडी दिमाग की उपज थे और इसलिए उन्होंने हमेशा एक समन्वित दृष्टिकोण अपनाया। इस शोध पत्र में गोस्वामी तुलसीदास की लोकनायक के रूप में समन्वय साधन का अध्ययन किया गया है।

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2025-08-27

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तुलसीदास के साहित्य में समन्वय की प्रासंगिकता. (2025). International Journal of Multidisciplinary Research in Arts, Science and Technology, 3(8), 176-186. https://doi.org/10.61778/ijmrast.v3i8.171