ऋत का दार्शनिक, वैदिक एवं वैज्ञानिक विवेचन: भारतीय ज्ञान परंपरा में ऋत का स्थान और समकालीन प्रासंगिकता
DOI:
https://doi.org/10.61778/ijmrast.v3i2.122Keywords:
ऋत, धर्म, सत्य, ब्रह्मांडीय व्यवस्था, भारतीय ज्ञान परंपरा, वेद, उपनिषद्, विज्ञान, नैतिकता, प्रकृति, समरसता ।Abstract
यह शोध–पत्र “ऋत” की अवधारणा का वैदिक, दार्शनिक तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सम्यक् विश्लेषण प्रस्तुत करता है। “ऋत” वेदों में ब्रह्मांडीय नियम, नैतिक सत्य और प्राकृतिक संतुलन का प्रतीक है। यह केवल धार्मिक या आस्थामूलक तत्व नहीं, बल्कि एक सार्वभौमिक सिद्धांत है जो भौतिक और आध्यात्मिक दोनों स्तरों पर जीवन की समरसता को स्थापित करता है। ऋग्वेद में “ऋत” को सत्य का आधार तथा ब्रह्मांड की नियामक शक्ति कहा गया है —
“ऋतं च सत्यं चाभीद्धात् तपसोऽध्यजायत।” (ऋग्वेद 10.190.1) इस शोध में वेद, उपनिषद्, ब्राह्मण ग्रंथ, मनुस्मृति और आधुनिक विद्वानों के मतों के आधार पर “ऋत” के स्वरूप, वैज्ञानिक तात्त्विकता और समकालीन प्रासंगिकता का विवेचन किया गया है। “ऋत” का तात्पर्य केवल सत्य के दार्शनिक अर्थ से नहीं, बल्कि समग्र ब्रह्मांडीय व्यवस्था से है जो न केवल प्रकृति में नियमबद्धता लाती है, बल्कि मानव समाज में नैतिक आचरण और न्याय की आधारशिला भी रखती है।
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