संस्कृत गद्य-वाङ्मय में अभिहित शिक्षापरक तथ्यों की समसामयिक प्रासंगिकता
DOI:
https://doi.org/10.61778/ijmrast.v2i12.101Abstract
संस्कृत साहित्य में सर्जन कार्य के लिए दो विधियों का प्रयोग होता रहा है प्रथम- पद्य विधि तथा द्वितीय- गद्य-विधि इन विधियों का प्रारंभ मानव के बौद्धिक विकास के साथ ही होता गया। मानव जाति के विकास के अध्ययन का मूल स्रोत होने के कारण भारतीय वङ्मय ग्रीक साहित्य के अपेक्षा कहीं अधिक उत्कृष्ट है।[i] संस्कृत पद्यमय विधि प्रारंभ वेदों में ऋग्वेद से तो, उसी प्रकार गद्यमय-विधि का प्राराभ यजुर्वेद से माना जाता है क्यों कि- यजुस् का मुख्य अर्थ ही है- ‘यजुर्यजते:’ अर्थात् यज्ञ सम्बन्धी मंत्रों को यजुस् कहते हैं। तथा ‘इज्यतेऽनेनेति यजुः’ जिन मंत्रों से यज्ञ-यागादि किए जाते हैं तथा गद्यमय लक्षण भी इस प्रकार प्राप्त होता है-‘अनियताक्षरावसानो यजुः’ अर्थात् जिन मंत्रों में पयों के तुल्य अक्षर संख्या निर्धारित नहीं हो उसे गद्य-विधा कहते हैं।[ii] पूर्वमीमांसा में तो यहाँ तक कह दिया गया है कि ‘शेषेयजुः शब्दः’ अर्थात् पद्यबन्ध और गीत से रहित मंत्रात्मक रचना को यजुष् कहते हैं।[iii] इस प्रकार हम अध्ययन करते हुए गद्य-विधा के उत्पत्ति के अत्यन्त नजदीक पहुँच जाते हैं।
[i]मैक्डानल, संस्कृत साहित्य का इतिहास, हिन्दी अनुवाद्, पृं. 5
[ii]संस्कृत साहित्य का इतिहास-कपिलदेव द्विवेदी, पृ०54
[iii] पूर्वमीमांसा- जैमिनि -2.1.37
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